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Saturday, August 4, 2018

दोस्त की दोस्ती हो तो ऐसी हो।


हमारे भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में मित्रता का स्थान सदैव व्यक्ति के जीवन मे बहुत महत्व रखता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में माता- पिता एवं गुरू के बाद यदि किस का स्थान है तो वह मित्र का ही होता है। लेकिन जब हम मित्रता की बात करतें हैं तो हम लोग द्वापर युग के कृष्ण-सुदामा के मध्य रही मित्रता को उदाहरण के रूप में उल्लेख करने से नहीं चूकते हैं।
हमारे भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में कृष्ण एवं सुदामा की मित्रता को इतनी प्रसिद्धि क्यों मिली और इसके क्या कारण थे? जिसकी वजह में भगवान श्री कृष्ण के सहपाठी रहे सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण घर जन्मे थे। उनके परिवार की ऐसी स्थिति थी कि उनके माता ने बच्पन में सुदामा को पाठशाला भेजते वक्त चंद तन्दुल (चावल )के दाने उनके धोती के आंचल के किनारे बांध दिये और उनसे कहा कि जब खूब भूख लगे तो एक मुठ्ठी निकल चबा कर एक लोटा शीतल जल पान करके अपनी क्षुदा को शांत कर लेना। पाठशाला में सभी बच्चे अपने साथ भूख लगने पर खाने के लिए कुछ न कुछ अपने साथ लईया चना  या गुड़ चना इत्यादि लाया करते थे। लेकिन कृष्ण भी  पाठशाला में पढ़ने वाले बच्चों में से सुदामा के साथ ही बैठते थे । एक दिन जब सभी बच्चे अपना -अपना खाने का सामान निकल कर आपने-अपने मित्रों के साथ खाने लगे लेकिन सुदामा अपने साथ लाये तन्दुल के दिनों को सबके सामने न खोल कर दूर एक पेड़ के छावों में बैठ कर आँचल में बंधे चावल के दानों में से एक मुट्ठी भर निकाल के खाने ही वाले थे कि कृष्ण जी पेड़ के आड़ से निकल कर उनसे वह चावल के दाने छीनते हुए बोले कि हम से छुपा-छुपा कर खाने के लिए तुम अकेले यहां पर खा रहे हो जरूर तुम्हारा खाना कुछ विशेष प्रकार का होगा तभी तो तुम सभी बच्चों से छुपा कर खाना चाहते हो। कृष्ण के एकदम से सामने आजाने से सुदामा सकपका सा गये, लेकिन सुदामा कुछ आगे कहते सुनते इससे पहले कृष्ण ने झपट्टा मार कर उनके हाथ से वोह तन्दुल के दाने उनके हाथों से छीन कर खुद खाने लगे। इस छीना झपटी में तन्दुल के सारे दाने जमीन पर गिर गये तब कृष्ण ने रोते हुए सुदामा को अपने गले से लगा लिया और अपना खाना उन्हें खिलाया।
कृष्ण राज महल में रहते हुए बड़े हो कर अपना राजपाठ संभालने लगे, लेकिन उनका मित्र सुदामा पहले भी दरिद्र था और वह अभी भी दरिद्र रहा। सुदामा भीख मांग कर अपने पति-पत्नी के साथ अपने बच्चों का पेट बड़ी मुश्किल से पाल रहा था।
उसके बच्चों को पेट भर खाना भी नही मिल पाता था। एक दिन अपने गरीबी से तंग आकर सुदामा ने अपने पत्‍नी से कहा कि वे स्वमं तो  भूखे रह सकते हैं लेकिन अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकते हैं, हमारी  अंतरात्मा हमे झकजोर देती है, ऐसे कहते -कहते उनकी आंखें आशुओं से डब-डबा गये।
अपने परिवार की ऐसी अवस्था से वे ऊब चुके थे। एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी से परिवार के कष्टों के निवारण के लिए उपाय पूछा तो सुदामा की पत्नी ने कहा- कि आप अक्सर कहते रहते हैं कि द्वारका के राजा कृष्ण आपके परम मित्र हैं। जब द्वारकाधीश खुद आपके मित्र हैं तो एक बार आप क्यों नहीं उनके पास चले जाते? वह आपके दोस्त हैं तो आपको इस हालत में देखकर बिना मांगे ही वह आपको कुछ न कुछ अवश्य देंगे। इस पर सुदामा बड़ी मुश्किल से अपने सखा कृष्ण से मिलने के लिए तैयार हुए। उन्होंने अपनी पत्‍नी सुशीला से कहा कि किसी मित्र के यहां खाली हाथ मिलने नहीं जाते इसलिए कुछ उपहार उन्हें लेकर जाना चाहिए। लेकिन उनके घर में अन्न का एक दाना तक नहीं था। कहते हैं कि सुदामा के बहुत जिद करने पर उनकी पत्‍नी सुशीला ने पड़ोस चार मुट्ठी चावल मांगकर लाईं और वही कृष्ण के लिए उपहार के रूप में एक पोटली में बांध दिया।
सुदामा चलते-चलते जब द्वारका नगरी पहुंचे तो वहां का वैभव देखकर वे हतप्रद रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। उस नगर के सभी लोग बहुत ही सुखी एवं संपन्न थे। सुदामा किसी तरह से लोगों से पूछते हुए कृष्ण के महल तक पहुंचे और द्वार पर खड़े पहरेदारों से कहा कि वह कृष्ण से मिलना चाहते हैं। लेकिन उनकी हालत देखकर द्वारपालों ने सुदामा से पूछा कि उन्हें कृष्ण से क्या काम है? तब बहुत सकुचाते हुये सुदामा ने द्वारपालों से कहा कृष्ण मेरे बचप्पन के मित्र हैं। तब द्वारपालों ने सुदामा को डांटते हुए कहा अरे विप्र कृष्ण क्या तुम जानते हो ख़बदार अंदर मत जाना तूम द्वार पर ही खड़े रहो हम में से कोई उन्हें बताते हैं। तब द्वारपाल ने जाकर भगवान कृष्ण को बताया कोई गरीब ब्राह्मण उनसे मिलने आया है। वह अपना नाम सुदामा बता रहा है। इस सुदामा नाम सुनते ही भगवान कृष्ण नंगे पांव सुदामा को लेने के लिए दौड़ पड़े। इस पर वहां मौजूद लोग हैरान रह गए कि एक राजा और एक गरीब साधू से कैसी दोस्ती हो सकती है।

भगवान कृष्ण ने सुदामा को अपने गले से लगा लिया और अपने महल में ले गए और उनकी पाठशाला के दिनों की यादें ताजा हो गयी तब कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि भाभी ने उनके लिए क्या भेजा है है? इस बात पर सुदामा संकोच में पड़ गए और अपने साथ लाये चावल की पोटली छुपाने लगे। ऐसा देखकर कृष्ण ने उनसे चावल की पोटली फिर बच्पन की तरह उनसे छीन ली। सुदामा की गरीबी देखकर उनके आखों में आंसूओं की धार निकल पड़ी।

उन्होंने चावल के उस पोटली में से एक मुट्ठी चावल निकाल कर खा गये और फिर दूसरी मुट्ठी चावल निकाल कर खा गये और जब तीसरी मुठ्ठी चावल निकलने के लिये अपना हाथ कृष्ण ने आगे बढ़ाया तो झट से रुक्मणि ने उनका हाथ रोकते हुये कहा हे प्रभु यह आप क्या कर रहे है? सुदामा को दो मुठ्ठी तन्दुल निकाल कर आपने सुदामा को पहले ही दो लोकों का स्वामित्व उन्हें दे डाल तीसरी मुठ्ठी से तो आप उन्हें तीनो लोकों का स्वामित्व दे डालेंगे तो प्रभु आप स्वमं कहाँ निवास करेंगे?
सुदामा कुछ दिन द्वारिकापुरी में रहे लेकिन संकोचवश कृष्ण से कुछ भी नही मांगा सुदामा जब अपने घर लौटने लगे तो सोचने लगे कि पत्नी पूछेगी कि क्या लाए हो तो वह क्या जवाब देंगे? सुदामा इन्ही विचारों में खोये कब घर पहुंचे उन्हें तो होश ही नही रहा। जब वहां उन्हें अपनी झोपड़ी नजर ही नहीं आई। वह अपनी झोपड़ी ढूंढ ही रहे थे कि तभी एक सुंदर महल जैसे घर से उनकी पत्नी को बाहर आते देखा। सुदामा ने अपनी पत्नी सुशीला को बहुत सुंदर कपड़े पहने हुए देखा तो सुशीला ने सुदामा से कहा, देखा आपके मित्र कृष्ण का प्रताप, हमारी गरीबी दूर कर भगवान कृष्ण ने हमारे सारे दुःखों का हरण कर लिए। सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आंखों में खूशी के आंसू छलक आये।
कृष्ण ने सुदामा को अपने से भी अधिक धनवान बना दिया था।
आज वर्तमान समय मे भी लोग कृष्ण एवं सुदामा जैसे मित्र और उनके मित्रता का उदाहरण दूसरों के सामने प्रस्तुत करते हैं।









Wednesday, April 12, 2017

एक अंश
और आगे एक अंश
हम मनुष्यों के मन मे समय—समय पर अनेको प्रकारी के प्रश्न उठते रहते ही हैं ऐसे ही प्रश्नों स्वाभाविक सी बात है कि मानव कहाँ से और कैसे उत्पन्न हुआ एवं वह अपने मावन जाती को विकसित करने में सफल हुआ। इस विषय में अनेको मत हैं जैसा कि पूर्व जगत मनु को मनुष्यों का पूर्वज माना है, पाश्चात्य विज्ञान बंदर की विकसित अवस्था मनुष्य को माना है।
मनुष्यों की उत्पत्ति के विषय में इ्रस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन ओरिजिन ने काफी गहन अन्वेषण —अनुसंधान किये हैं। इस संस्था के वैज्ञानीक कार्ल स्बीशर एवं गर्निश कर्टीजन ने इंडोनेशिया से प्राप्त होमोइरेक्टस का बहूत शुक्ष्मता से अध्ययन किया है। उनके अनुसार मनुष्य अफ्रीका के जंगलों में आदिमानव श्च्छिन्द रुप से विचरण किया करता था। उस समय अफ्रीका की जलवायु मनुष्यों के लिए उपयुक्त माना गया था।
डॉ ऐन्सन एवं अन्य कई विद्वानों ने भौगोलिक स्थिति का अध्ययन कर यह पता लगाया था कि पूर्वकाल में अफ्रीका अमेरिका एवं यूरोप की ऐसी स्थिति नहीं थी कि वहाँ मानव की उत्पत्ति हो ाके। उॉक्टर ऐन्सन ने मनुष्य की उत्पत्ति को लेकर परोक्ष रुप से हिमालय की ओर इंगित किया है। टेलर की मान्यता है कि वह स्थान स्वर्ग तुल्य कश्मीर ही है। ईरान की पारसी जाती के लांग अपना मूल निवास हिमालय को ही मानते हैं। पारसियों, हिन्दुओ, यहूदियों एवं क्रिश्चियनों के धर्म ग्रंथो के अनुसार यदि इस सृष्टि की उत्पत्ति ऐसे स्थान पर हुई जहाँ दस महिने सर्दी एवं दो महीने गर्मी पड़ती है तो निश्चित रुप से वह स्थान मानसरोवर से कश्मीर तक का क्षेत्र ही होना चाहिए इब्ने अली का हातिम ने भी यह स्वीकारा है कि हिंद की घाटी में ही आदम बहिश्त से उतरा था। इतिहासवेत्ता ए०एल० बाशम ने अपनी प्रसिद्ध कृति ट्टदबंडरदैट बाज ईडिया में स्पष्ट रुप से लिखा है कि ट्टईसा से करीब एक लाख से अधिक वर्ष पहले मानव ने पहली बार , अपने जीवन के प्रथम चिन्ह भारत में छोड़े । महाभारत मे लिखा इस श्लोक में भी मानव जाती की उत्पत्ति भारत मे ही बतायी गयह है।’’
अथ गच्छेत राजेन्द्र लोकविश्रुताम।
प्रसूतिर्यत्त विप्राणांश्रूयते भ्रतर्षम।।
इसका अर्थ सप्तरुचि तीर्थ के पास बितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मानव जाति को उत्पत्ति हुई। इस तरह लगभग सभी प्रणाम यह सिद्ध करते हैं कि आदिमानव की विकास—यात्रा बहुत धीमी गति से हुई वन मानुष की अवस्था में पूर्व मानव 6 करोड़ वर्षो का दीर्ध काल व्यतित किया होगा इन 6 करोड़ वर्षो के समय काल को हम पांच युगों में बांट सकते हैं।
1—पूर्व जीवन काल— 1 करोड़ 80 लाख वर्ष
2—आदि जीवन काल — 1 करोड़ 20 लाख वर्ष
3— अल्प जीवन काल— 1 करोड़ 80 लाख वर्ष 
4— मध्य जीवन काल— 1 करोड़ 60 लाख वर्ष
5— अति नूतन काल— 1 करोड़ 10 लाख वर्ष        
अतिनूतन काल के अंतिम समय में ही मानव जाती की विकास यात्रा प्रारंभ हुई होगी ट्टट्टक्लेरी अलेक्सेवेव ने अपने अध्ययन में ट्टमानव जाती की उत्पत्ति मे इस निर्धारण कुछ इस तरह से किया है।
1— आदिम प्राग् यूथ जिसे पूर्व पाषाणकाल की आरंभिक अवस्थाएं माना जाता है। इसके चालीस से बीस लाख वर्ष पहले आस्ट्रेलोषिथिसिस का आगमन माना जाता है।
2— आरंभिक आदिम यूथ पूर्व पाषाणकाल की उत्तरवर्ती अवस्था है। इसमें विथिकैंथ्रोपस ने जन्म लिया।
3— मध्य पुरापाषाण काल को आदिम यूथ का विकसित युग कहते हैं, इसमें नियंडरथल मानव का विकास हुआ।
4— आदिम समुदाय का उत्तर पाषाण काल, मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल और आरंभिक कांस्य युग में आधुनिक मानव का विकास हुआ।
आदि मानव ने पृथ्वी के इस भूखंड पर जन्म लेकर अपनी असहाय स्थिति का अनुमान किया। प्रकृति की महान शक्तियों के सम्मुख उसकी नगण्य चेतना जाग्रत हुई और उसने अपने उदर की क्षुधा को शांत करने के लिए, शरीर को शांत और ताप, वर्षा से सुरक्षित रखने के लिए एवं भयंकर पशुओं से अपनी सुरक्षा करने के लिए इस तरह के प्रत्यन किये।

Friday, July 1, 2011

मानव समज और संस्कृति का विकास । संक्षिप्त परिचय का संशोधित रुप भाग- 1


मानव समज और संस्कृति का विकास ।
संक्षिप्त परिचय का संशोधित रुप
भाग- 1

                         दिनांक 1/7/2011
भारतीय समाज की संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीनतम् संस्कृति है। मानव संस्कृति का प्रारंभ करोड़ो बर्ष पहले हिमालय के गोद मे शुरु हुआ। स्वर्ग का क्षेत्र हिमालय पर्वत हुआ करता था। जाहाँ मानव की उत्पत्ति हुई । जैसा की हमारे वेद पुराणों मे उल्लीखित ऋचाओं से ज्ञात होता है कि ईश्वर या सर्वशक्तिमान ने सर्वप्रथम एक पुरुष, स्त्री को जन्म दिया। (यह जोड़ा शंकर और पार्वती) इस जोड़े से दो पुत्र उत्पन्न हुए एक सूर और दुसरा असूर कहलाया। यह सूर,असूर दोनो भाई के वंश धिरे-धिरे बढ़ते रहे। सूर सभाव से बड़े ही सौम्य, मन्नशिल, प्रतिभाशालि और उनका आहार सात्विक था। दूसरा पुत्र असूर का स्भाव क्रोधी, उदंन्ड एवं उनका खान-पान मांस, तामसिक भोजन प्रिय थे। कुछ समय पश्चात दोनो भाईयों मे लड़ाई होने लगी। कालान्तर यह लड़ईयाँ युद्ध मे परिवर्ती होता चला गया। एक समय ऐसा आया असूर लोग स्वर्ग मे अत्यन्त उत्याचार करने लगे उनसे स्वर्ग की संस्कृति को खतरा पैदा हो गया तब उनके पर दादा ने देव आदि देव (शिव जी) दोनो भाईयो को अलग करने के लिये उन्हें यह आदेश दिया कि बड़े भाई सूर और उनकी संन्ताने यही स्वर्ग मे रहेगें और असूर एवं उनकी संन्ताने वलूच्य देश (आज कल इसका नाम बलूचिस्तान है।) मे जा के रहे। इस प्रकार दोनो एक दूसरे से दूर रहेंगे तो उनके मध्य युद्ध होने का खतरा नही होगा। (चूंकि शिव दोनो ही भाईयों के पूज्यनिय थे। इसलिए आज भी मक्का मदिना मे शिव लिंग का होना बताया जाता है।)  इस आदि काल के एक युद्ध का वर्णन संक्षेप मे इस प्रकार है। इस काल के विख्यात असूर महिषासूर ने स्वर्ग मे बहुत उत्पात मचा रखा था । इस असूर को युध्द मे मारना अकेले किसी देवता के वश मे नही था। सभी देवताओ ने मिल कर इसका उपाय सोचा कि हम सारे देवता मिल कर उस असूर का बध करें। परन्तु यह एक निकृष्ट कार्य होगा। और यह युद्ध के नियम के विपरित भी यह विचार कर सभी देवता एकत्रित हो इस समस्या का हल ढूँढने के लिए देव आदि देव शंकर के पास गये। सभी देव मिल कर शिव से बोले कि भगवन् आप अकेले ही महिषासूर ( महिष का अर्थ भैंस है, महिषासूर चूंकि भैसे कि सवारी करता था इसलिए उसका नाम महिषासूर पड़ा। ) का संहार कर सकते हैं। शिव जी बोले- मै आप के समाज का प्रथम पुरुष सभी मेरे लिए समान हैं। महिषासूर से युद्ध करते समय क्रोध वश मैने आपने पशुपति अस्त्र का (आज वर्तमान समय के दो परमाणु बम पुरी दुनिया को समाप्त कर सकता है, शिव का एक पशुपति अस्त्र पुरी दुनियाँ को नष्ट कर सकता था।) प्रयोग कर दिया तो संसार की सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश हो जायेगा इसलिए यह काम मै नही कर सकता, कोई दूसरा ऊपाय सोचों। सभी देवता ने इस समस्या को हल करने का भार शिव पर ही छोड़ दिया। तब शिव ने यह युक्ति निकाला कि हम सभी का तेज, प्रताप और अस्त्र से लैस एक प्रति मूर्ती बनाकर ही इस असूर का संहार किया जा सकता है। युद्ध करने के लिए किसी को विना कारण ललकारा नही जाता है। इसलिए इस प्रति मूर्ती (दुर्गा) को नारी का रुप दिया गया। क्योकि आदि काल से नारी रुप पुरुष के लिए सदैव आर्कषण का केन्द्र रहा। पुरुष का यह प्रारभ्य प्रकृति की देन है। दुर्गा श्रगांर करके हिमालय के गुफा कंद्राओ के पास जाकर बैठ गईं। जहाँ महीषासूर दुर्गा के रुप यौवन पर मुग्ध हो कर उसकी ओर आक्रर्षित हो दुर्गा के समीप गया और दोनो मे घमासान युद्ध शुरु हुआ। युद्ध करते-करते सात दिन गुजर गये। भुखी-प्यासी दुर्गा अपना होशो-हवास खो बैठी और शरिर काली पड़ जाने के बाद, ( इसीलिए दुर्गा का एक रुप काली एवं दूसरा नाम श्यामा है।) और रोद्र रुप धारण कर रण चंडी बन गई। नर मुंडों को काट-काट कर उसके खून से अपना प्यास बुझाने लगी दुर्गा का यह उन्मादी रुप देखकर सभी देव घबड़ा कर पुनः शंकर के पास पहुचें और उनसे देवी को रोकने के लिए प्रर्थना करने लगे। तब शिव जी दूर्गा को रोकने के लिए युद्ध क्षेत्र के भूमि पर लेट गये दुर्गा लड़ते-लड़ते अचानक लाश समझ कर अपना एक पैर भगवान शंकर पर रख दिया अपराध बोध और लज्जा के कारण उनके मुँह से जिभ बाहर निकल आया कि यह मैने क्या किया। इसीलिए काली मुर्ती मे काली की जीभ बाहर निकली हुई होती है। इस युद्ध मे महिषासूर मारा गया। एक मर्द कि तरह महिषासूर से लड़ने के कारण दुर्गा का एक नाम महीषासूरमर्दिनी पड़ा । ( दुर्गा की प्रतिमा मे दुर्गा के पैरो तले भैंस और असूर की मुर्ती को प्रदर्शित किया जाता है।) आज भी पहाड़ एवं अन्य समुदायों के लोग शक्ति के उपासक दुर्गा की पूजा करते हैं।      
स्वर्ग मे सूरो के संन्तने धिरे-धिरे बढ़ते रहे उधर असूरों के। स्वर्ग में सूरो की संख्या अधिक हो जाने पर वहाँ नियम-कानून बना कर देव समाज को व्यवस्थित किया गया। देवताओं मे से जो भी स्वर्ग का नियम तोड़ता, उसे दंड स्वरुप नर्क मे जा कर निवास करने का आदेश दिया जाता । नर्क का क्षेत्र (नर के न रह पाने वाली जगह) का निर्धारण ऊपर से सुदूर निचे की ओर अर्थात जाहाँ (हिमालय) से गंगा निलकर समतल पर बहती हो। (जहाँ खाने पिने से लेकर जिन्दा रहने के लिए हर पल संघर्ष करना पड़ता था। जैसे अंग्रेजी शासन काल का काला-पानी ) पहाड़ के निवासी आज भी उपर या निचे को जा रहे हैं जैसे शब्दो का प्रयोग करते हैं। स्वर्ग से निकाले गये यह देव और देवी दंड स्वरुप नर्क के निवासी बने और धिरे-धिरे नर्क मे देव और देवीयों के संन्तानो का विकास होता चला गया। इसी काल मे स्वर्गं निवासीयों का दूसरा वर्ग किन्नरियों, नर्तक और नृर्तकिओं का था।उन्हें हिमालय का दूसरा क्षेत्र किनोर (वर्तमान मे हिमांचल प्रदेश )  मे रहने को दिया गया। (बहुत बर्षो तक इस जगह का नाम किन्नरियो का निवास स्थान होने के कारण किन्नर देश के नाम से जाना जाता रहा। वर्तमान मे इसका नाम बदल कर हिमांचल प्रदेश के किनोर जिला हो गया है।) इस प्रकार स्वर्ग समाज को व्यवस्थित किया गया। धिरे-धिरे दंड पाये स्वर्ग के देव और देवीयों ने मनुष्यों के रहने के लिए नरक को भी स्वर्ग जैसा बना डाला। इस काल के मानुष्य अपने जप-तप के वल पर साधु-संन्त ऋषि मुनी बने उन्होने देव आज्ञा से वेद-पुरोणो की रचना की इस समय का मानव अपने पूर्वजो देवो के साथ सिधे संम्पर्ख मे रहें। वेद मानव सभ्यता का सबसे प्रचिन हस्त लिखित दस्तावेजों मे से एक हैं। वेद की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत के पुणे ' भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट ' में रखी हुई हैं। प्रोफेसर विंटरनिट्ज के अनुसार वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000 से 2500  ईसा पूर्व माना जाता है। वास्तव में वेदों की रचना एक निश्चित काल में नहीं हुआ है वल्कि विद्वानों ने वेदों का रचनाकाल 4500 ई.पू. निर्धारित किया है। अर्थात इसकी रचना क्रमशः होती रही। यह माना जाता है कि सर्व प्रथम वेद को तीन भागों में संकलित कर वांटा गया पहला- ऋग्‍वेद दूसरा-यजुर्वेद तिसरा-सामवेद जि‍से वेदत्रयी भी कहा जाता था। मान्यता के अनुसार वेद का वि‍भाजन राम चंन्द्र के जन्‍म काल से पूर्व ऋषि पुरुवा के समय में हुआ था। बाद में श्रृषि अथर्वा ने किया। वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की एक अनुपम कृति हैं। विद्वानों द्वारा वेद को संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद और आरण्यक चारो को समग्र वेद कहा गया है। इस चारो भागो को सम्मिलित रूप से श्रुति कहा। आरण्यक एवं इस चारों के संयुक्त रुप चार भागों के बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं। वेदो का शब्दिक अर्थ ऋग- स्थिती , यर्जुरुपांतरण, साम – गतिशील एवं अथर्व का अर्थ जड़ से है। ऋक से धर्म, यर्जुः से मोक्ष, साम से काम, अथर्व से अर्थ कहा गया है। इसी के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई है। ऋग्वेदः- (ऋक) में 10 मंडल और 1,028 ऋचाएं हैं। इस वेद की ऋचाओं मे देव लोक मे स्तुतियाँ और देवताओं की स्थिती का वर्णन किया गया है। यजुर्वेदः- यत् और जु से मिल कर बना है। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। यत् का अर्थ गतिशील और जु का अर्थ आकाश इसके अतिरिक्त कर्म की प्रेरणा प्रदान किया है। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन किया गया है। कृष्ण एवं शुक्ल इसकी दो शाखाएँ हैँ। सामवेदः- साम का अर्थ रुपांतरण,उपासना,सौम्यता और संगीत है। इस वेद मे 1824 मंत्र हैँ वस्तुतः इसमे अधिक्तर ऋग्वेद की ऋचाएं होने साथ ही साथ संगीतशास्त्र पर आधारित हैं। अथर्ववेदः- थर्व का मतलब कंपन और अकंपन दोनो है। अथर्ववेद में 20 कांड और 5987 मंत्र हैं। अपने ज्ञान से परिपूर्ण समाज मे उत्तम कार्य करते हुए जो मनुष्य परमात्मा की आराधना में लिप्त रहता है वही मनुष्य अकंपित ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष को धारण करता है। इसमे ऋग्वेद की अनेको ऋचाएं होने के साथ ही साथ रहस्यमय विद्याओं का भी वर्णन है। चारों वेदों का सार उपनिषदें हैं। उपनिषदों का सार 'गीता' है। इस क्रम मे वेद उपनिषद एवं गीता हमारे धर्मग्रंथ हैं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत रुप से समझाया और बताया गया है। मनुस्मृति के श्लोक संख्या (।।.6) में कहा गया है कि वेद मानव संस्कृति के सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत ग्रंथ है। वेद किसी प्रकार के जात-पात, ऊँच-नीच, महिला-पुरुष में भेद नही हैँ। ऋग्वेद में लगभग 411 ऋषियों और 30 महिला ऋषियों के नाम मिलते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों का वर्णन और वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। ब्राह्मण मुख्यता तिन हैं, पहला- ऐतरेय, दूसरा-  तैत्तिरीय और तिसरा- शतपथ।
इस प्रकार देव समाज का विस्तार और परिवर्तन होता चला गया। देव समाज हिमालय एवं पृथ्वी से कब समाप्त हुए यह कहाना कठिन है, परन्तु यह अनुमान लगाया जाता है कि अवश्य ही किसी भंयकर प्राकृतिक जलप्लावन ने इस उन्नत समाज का विनाश कर दिया। पुराणों में उल्लेख है कि जलप्रलय के समय ओंकारेश्वर स्थित मार्कंडेय ऋषि का आश्रम तथा हिमालय के कुछ चोटियां इस जलप्लावन से अछूते रहे। कई माहों तक वैवस्वत मनु ( जिन्हे श्रद्धादेव के नाम से जाना जाता है ) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गोरी-शंकर शिखर ( एवरेस्ट ) चोटी से नीचे उतरे। हिमालय का क्षेत्र तिब्बत में मनु के वंशजों की धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि होती रही जलवायु और वातावरण में तेजी से परिवर्तन होने के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर प्रस्थान करना शुरू किया। भूवैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि पहले सभी द्वीप इकट्ठे थे। धरती की घूर्णन गति एवं भू-गर्भीय परिवर्तनो के कारण धरती के द्वीपों के स्थिती परिर्वतन हुए। प्रलय के खत्म होने के बाद बहुत समयान्तराल के बाद धीरे-धीरे समुद्र का जलस्तर घटा मनु की संतति दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी मैदानो और पहाड़ी प्रदेशों में फैलते चले गए, और अखंड भारत की सम्पूर्ण भूमि को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मार्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त एवं भारतवर्ष इत्यादी –इत्यादि नाम दिए। मनु की संताने जो यांहा आए वे सभी मनुष्य आर्य कहलाए। आर्य एक गुण वाचक शब्द है इसका अर्थ श्रेष्ठ है। यही आर्य लोग जब यांहा आए तो अपने साथ वेद लेकर आए। तभी से यह धारणा प्रचलित हुई कि देवनगरी से वेद धरती पर उतर आए हैं। स्वर्ग मतलब हिमालय से गंगा को धरती पर उतारा गया। यही लोग धरती पर निवास करने लगे और भांति-भांति के संस्कृति और धर्मो को जन्म दिया। मनुष्यों ने अपने समाज का पुनः निर्माण किया। आदि काल के अन्तिम चरण तक आते-आते मानव जाति छोटे-छोटे समुदाय बनाकर जंगलो मे खर पतवारों से बने घरो मे रहाना सिख गये  थे। इस तरह एक युग खत्म हो दूसरा युग, सत्य युग शुरु हुआ। हमारे पूर्वजों ने युगों को चार भागो मे बाँटा। पहला -सत्य युग । ( इस युग मे सब कुछ सत्य था। झूठ का नामोनिशान नही था। यह सत्य युग कहलाया।) दूसरा - त्रेता युग। (मानव जाती का तिसरा पड़ाव यदि प्ररम्भिक काल को जोड़े तो युग पाँच हो जोयेगें 2-सत्य युग 3-त्रेता युग 4-व्दपर युग 5- कली युग)  होने के तिसरा पड़ाव होने के कारण यह त्रेता कहलाया।)  तिसरा - व्दापर युग। (युग के मध्य का समय होने के कारण व्दापर कहलाया।) चौथा - कली युग। ( यह युग इन तिनो युगो से बड़ा एवं अंतिम युग है। ) इस प्रकार मानव संस्कृति और समाज का एक युग के समाप्ती पर फिर से नवनिर्माण होता रहा। पहला सत्य युग इस इस युग मे हिरण्य कश्यप  नामक एक परक्रमी दानव पैदा हुआ।   इस दानव ने मानव समाज मे बहुत उतपात मचा रखा था। जब हिरण्य कश्यप के अत्याचारो से मानव समाज त्राही-त्राही कर उठी तब पुरा मानव समाज इस राक्षस से मानव जाती के रक्षा के लिए अपने पूर्वज देवो से प्रार्थना व स्मरण करने लगे उस समय विष्णु प्रहलाद के रुप मे जन्म लेकर हिरण्य कश्यप का वद्ध कर मानव समाज को इस राक्षस से मुक्ती दिलाई। पृथ्वी पर अब तक सैकड़ो बार रामायण और महाभारत हो चूके हैं। मानव अपने पूर्वजो से मिली संस्कृति और वस्तुओ को सहेजता चला गया। फिर त्रेता युग मे पुरुषो मे उत्तम (अच्छा) पुरोषोत्तम राम का जन्म फैजाबाद जिले मे अयोधा नगरी मे हुआ जो की आज भी हमारे समक्ष साक्ष्य है। इस युग के बाद द्वापर युग आया इन दोनो कालो के घटनाओ एवं मनुष्य समाज की संस्कृति का विवरण महाभारत मे विस्तार से उल्लेख किया गया है। द्वापर काल के अन्तिम चरण मे राजा परिक्षित हुए। राजा का असमय मृत्यु हो जाने के करण उनका पुत्र जन्मेजय राज गद्दी पर बैठा। जन्मेजय का मंदिर पंजाब प्रदेश मे आज भी मौजूद है। द्वापर काल की समाप्ती का हम सभी को ज्ञात है। वास्तव मे महाभारत और रामायण दोनो ग्रंथो का इतना अधिक प्रचार-प्रसार हुआ कि हमारे समाज के प्रत्येक मनुष्य के दिलो-दिमाग मे रच बस गया। याहाँ पर इन दोनो पुस्तकों का उल्लेख करना मानव संस्कृति के विकास की कहानी का क्रम बनाए रखने के लिए जरुरी था।
आगे अगले अंक मे...............

Tuesday, June 28, 2011

लोकपाल विधेयक और अन्ना हजारे


लोकपाल विधेयक और अन्ना हजारे
दिनांकः-27/6/2011
देश मे लोकपाल विधेयक को लेकर होने वाले अनशन और नौ बैठकों पर एक सरसरी निगाह डाले तो उसमे एक तरफ सरकारी लोकपाल ड्राफ्टिंग और दूसरी तरफ जन लोकपाल ड्राफ्टिंग दोनो को सुनने और लोगों के राय जानने के बाद अन्ना हजारे के टीम द्वारा बनाया गया ड्राफ्ट ज्यादा सशक्त और प्रभाव कारी लगता है। क्यों कि जहां सरकारी लोकपाल मे सिर्फ पहले दर्जा के अधिकारीयों तक ही जांच की बात की गई है, इससे प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों,सांसदो और सीबीआई को इससे अलग रखा गया है। वहीं अन्ना के जनलोकपाल मे इन सभी को इसके दायरे मे रखा गया है। इन मुद्दों पर दोनो ड्राफ्टें ठिक एक दूसरे के विपरीत है। जबकि सोनिया गांधी के नेतृत्व मे चलने वाली राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद भी लोकपाल पर अपना ड्राफ्ट बना रहा है। ऐसे मे फिर एक बार सरकारी नजरिया साफ हो जाता है कि खुद सरकार कितना जन हित की बात करती और सोचती है। उच्चे स्तर पर विराजमान लोंग जो भी करें बह सब सही हैं। गरीब और मध्यम तबके लोग गरीब ही रहें। तभी तो देश मे सरकारें चला कर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारीयों के धन को सुरक्षित किया जा सकेगा।  इस तरह के अंग्रजी सोच आज तक हमारे देश मे कायम है और उसको अभी भी जिंदा रखने की कोशिसें हमारे ही देश के चुने हुए लोगों द्वारा लगातार चलाई जाती रही। इस समय जब जनता का दिलो दिमाग लोकपाल बिल को लेकर उलझा और सही समय जान सरकार बहुत चतुराई से रसोई गैस कि कीमतो मे बृद्धि कर, समय का फायदा उठाने मे लग गई। जहां प्रश्न बाबा राम देव और अन्ना हजारे का है बाबा राम देव आज जो अन्ना हजारे को साथ शमिल होने की बात कर रहें हैं ऐसा निर्णय पहले ही कर उन्हें अन्ना के साथ पहले ही शामिल हो जाना चाहिए था। अगर ऐसा हुआ होता तो यह मुहिम मजबूत और सुरक्षित होता। खैर यह एक अलग मुद्दा है कि दोनो के विचार मे फर्क हो सकता है लेकिन अन्ना और बाबा का मूल उद्देश्य एक ही हैँ। ऐसे मे यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई बीच का रास्ता नही निकाला जाना चाहिए जिससे आज 62 सालो से संसद से पास होने के इंतिज़ार में लटका विधेयक कहीं फिर इस बार भी लटका न रह जाए ऐसे मे लगता है कि क्या इसी तरह की अनशन और विरोध प्रर्दशन आने वाले दिनों मे भी जारी रहेगा और तरह-तरह के पार्टीयां और मुद्दे इससे जुड़ कर यह मुहिम राजनीति के भेंट बार-बार चढ़ता रहेगा।








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Thursday, April 7, 2011

राष्ट्र हित मे अन्ना हजारे जी का आमरण अनशन।

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राष्ट्र हित मे अन्ना हजारे जी का आमरण अनशन।
दिनांक- 7/4/2011
इतिहास गवाह है कि हमारे देश मे जब-जब देश एवं जन हित के मुद्दे पर समाज से कोई उठ कर आन्दोलन किया, तब-तब उसे अनेको यतनाओं, बलिदान करना पड़ा। ऐसा ही एक संघर्ष अन्ना हजारे जी का आमरण अनशन है। 1968 से आज 2011 इन 43 वर्षो मे देश मे लोकपाल विधेयक को मंजुरी नही मिल पाई। इसका प्रमुख कारण सत्ताधारी हो चाहे विपक्ष सभी को यह विधेयक गले का फंदा जैसा लगता रहा। जो आज विपक्ष मे है वह कल सत्ता मे था जो आज सत्ता मे है बह कल विपक्ष मे बैठा होगा। इन्ही जन प्रतिनिधीयों ने अपने फायदे के लिए आज तक इस विधेयक को पारित होने नही दिया, और कभी इस विधेयक पर संसद मे न तो कोई बहस हुई और नही इस मुद्दे को कभी उठने दिया गया। वास्तव मे संसद के पटल पर यह मुद्दा उठाने वाले जनप्रतिनिधी खुद आकंठ भ्रष्टाचार मे डूबे हुए थे तो कौन इस मुद्दे को उठाता। जो बिल्कुल पाक-साफ होता वही इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत कर सकता था। आज सत्ता से लेकर विपक्ष तक के लगभग सभी जनप्रतिनिधी एन केन प्रकारेण भ्रष्टाचार मे डूबे हुए हैं। ऐसी हालात मे देश की जनता किस पार्टी या जनप्रतिनिधी पर विश्वाश करे। हमारे देश के सभी राष्ट्रीय पार्टीयो को केवल अपने वोट और धन वटोरने की ही चिंता हमेशा से रही है। जिसके फलस्वरुप इन जन प्रतनिधीयों को देश मे चुनाव जितने के बाद जनता की उन्नती एवं कल्याण के कामो से कोई भी सरोकार नही होता है। अपरोक्ष रुप से उनका उद्देश सिर्फ धन वटोरने से ही रहाता है। देश मे चलने वाली बहुत से ऐसे परियोजनाओं को ही मंजूरी मिल पाती है, जिसमे इन प्रतिनिधीयों के तिजोरीयां रुपयो से भर सके। और जब उनके पास इतना ज्यादा धन आ गया कि तिजोरी छोटी पड़ने लगी तब भ्रष्टाचारीयो ने अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए सूईस बैंक का सहारा लिया। और इस तरह भ्रष्टाचार से कमाया गया धन का दायरा बड़ा होता चला गया। साथ ही साथ भ्रष्टाचारीयों की हिम्मत भी बढ़ती चली गई। इस तरह यह काला धन दुनिया वालो के नजरो से तो छुपा ही रहेगा साथ ही साथ इन्कम टैक्स वालो से भी, ऐसी स्थीती मे आमजनता किसको विश्वास करेगी वह व्यक्ति कौन होगा जो इस भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारीयों से देश को मुक्त करा सकेगा ऐसे मे सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना जी ने समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए विड़ा उठाया। इसमे कोई दोराय नही है कि यह सरकार किसी विषय मे निर्णय करने के मामले मे विल्कुल अक्षम रही है इसका कारण चाहे कुछ भी हरा हो, ठिक इसी तरह अभी-अभी जाट लोगो द्वारा किए गये रेल रोको प्रर्दशन मामले मे भी रहा है, खैर यह प्रर्दशन एक विशेष जन समुह तक सिमीत था। लेकिन लोक पाल विधेयक भ्रष्टाचार पर रोक लगाने पर एक राष्ट्रीय मुद्दा है, इस मुद्दे पर केवल भ्रष्टाचरीयों को छोड़ कर पूरा राष्ट्र एक है। यदि इस मुद्दे पर अभी समय रहते निर्णय नही लिया गया तो आज का अमरण अनशन जन विद्रोह मे भी बदल सकता है। 

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