हमारे भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में मित्रता का स्थान सदैव व्यक्ति के जीवन मे बहुत महत्व रखता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में माता- पिता एवं गुरू के बाद यदि किस का स्थान है तो वह मित्र का ही होता है। लेकिन जब हम मित्रता की बात करतें हैं तो हम लोग द्वापर युग के कृष्ण-सुदामा के मध्य रही मित्रता को उदाहरण के रूप में उल्लेख करने से नहीं चूकते हैं।
हमारे भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में कृष्ण एवं सुदामा की मित्रता को इतनी प्रसिद्धि क्यों मिली और इसके क्या कारण थे? जिसकी वजह में भगवान श्री कृष्ण के सहपाठी रहे सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण घर जन्मे थे। उनके परिवार की ऐसी स्थिति थी कि उनके माता ने बच्पन में सुदामा को पाठशाला भेजते वक्त चंद तन्दुल (चावल )के दाने उनके धोती के आंचल के किनारे बांध दिये और उनसे कहा कि जब खूब भूख लगे तो एक मुठ्ठी निकल चबा कर एक लोटा शीतल जल पान करके अपनी क्षुदा को शांत कर लेना। पाठशाला में सभी बच्चे अपने साथ भूख लगने पर खाने के लिए कुछ न कुछ अपने साथ लईया चना या गुड़ चना इत्यादि लाया करते थे। लेकिन कृष्ण भी पाठशाला में पढ़ने वाले बच्चों में से सुदामा के साथ ही बैठते थे । एक दिन जब सभी बच्चे अपना -अपना खाने का सामान निकल कर आपने-अपने मित्रों के साथ खाने लगे लेकिन सुदामा अपने साथ लाये तन्दुल के दिनों को सबके सामने न खोल कर दूर एक पेड़ के छावों में बैठ कर आँचल में बंधे चावल के दानों में से एक मुट्ठी भर निकाल के खाने ही वाले थे कि कृष्ण जी पेड़ के आड़ से निकल कर उनसे वह चावल के दाने छीनते हुए बोले कि हम से छुपा-छुपा कर खाने के लिए तुम अकेले यहां पर खा रहे हो जरूर तुम्हारा खाना कुछ विशेष प्रकार का होगा तभी तो तुम सभी बच्चों से छुपा कर खाना चाहते हो। कृष्ण के एकदम से सामने आजाने से सुदामा सकपका सा गये, लेकिन सुदामा कुछ आगे कहते सुनते इससे पहले कृष्ण ने झपट्टा मार कर उनके हाथ से वोह तन्दुल के दाने उनके हाथों से छीन कर खुद खाने लगे। इस छीना झपटी में तन्दुल के सारे दाने जमीन पर गिर गये तब कृष्ण ने रोते हुए सुदामा को अपने गले से लगा लिया और अपना खाना उन्हें खिलाया।
कृष्ण राज महल में रहते हुए बड़े हो कर अपना राजपाठ संभालने लगे, लेकिन उनका मित्र सुदामा पहले भी दरिद्र था और वह अभी भी दरिद्र रहा। सुदामा भीख मांग कर अपने पति-पत्नी के साथ अपने बच्चों का पेट बड़ी मुश्किल से पाल रहा था।
उसके बच्चों को पेट भर खाना भी नही मिल पाता था। एक दिन अपने गरीबी से तंग आकर सुदामा ने अपने पत्नी से कहा कि वे स्वमं तो भूखे रह सकते हैं लेकिन अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकते हैं, हमारी अंतरात्मा हमे झकजोर देती है, ऐसे कहते -कहते उनकी आंखें आशुओं से डब-डबा गये।
अपने परिवार की ऐसी अवस्था से वे ऊब चुके थे। एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी से परिवार के कष्टों के निवारण के लिए उपाय पूछा तो सुदामा की पत्नी ने कहा- कि आप अक्सर कहते रहते हैं कि द्वारका के राजा कृष्ण आपके परम मित्र हैं। जब द्वारकाधीश खुद आपके मित्र हैं तो एक बार आप क्यों नहीं उनके पास चले जाते? वह आपके दोस्त हैं तो आपको इस हालत में देखकर बिना मांगे ही वह आपको कुछ न कुछ अवश्य देंगे। इस पर सुदामा बड़ी मुश्किल से अपने सखा कृष्ण से मिलने के लिए तैयार हुए। उन्होंने अपनी पत्नी सुशीला से कहा कि किसी मित्र के यहां खाली हाथ मिलने नहीं जाते इसलिए कुछ उपहार उन्हें लेकर जाना चाहिए। लेकिन उनके घर में अन्न का एक दाना तक नहीं था। कहते हैं कि सुदामा के बहुत जिद करने पर उनकी पत्नी सुशीला ने पड़ोस चार मुट्ठी चावल मांगकर लाईं और वही कृष्ण के लिए उपहार के रूप में एक पोटली में बांध दिया।
सुदामा चलते-चलते जब द्वारका नगरी पहुंचे तो वहां का वैभव देखकर वे हतप्रद रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। उस नगर के सभी लोग बहुत ही सुखी एवं संपन्न थे। सुदामा किसी तरह से लोगों से पूछते हुए कृष्ण के महल तक पहुंचे और द्वार पर खड़े पहरेदारों से कहा कि वह कृष्ण से मिलना चाहते हैं। लेकिन उनकी हालत देखकर द्वारपालों ने सुदामा से पूछा कि उन्हें कृष्ण से क्या काम है? तब बहुत सकुचाते हुये सुदामा ने द्वारपालों से कहा कृष्ण मेरे बचप्पन के मित्र हैं। तब द्वारपालों ने सुदामा को डांटते हुए कहा अरे विप्र कृष्ण क्या तुम जानते हो ख़बदार अंदर मत जाना तूम द्वार पर ही खड़े रहो हम में से कोई उन्हें बताते हैं। तब द्वारपाल ने जाकर भगवान कृष्ण को बताया कोई गरीब ब्राह्मण उनसे मिलने आया है। वह अपना नाम सुदामा बता रहा है। इस सुदामा नाम सुनते ही भगवान कृष्ण नंगे पांव सुदामा को लेने के लिए दौड़ पड़े। इस पर वहां मौजूद लोग हैरान रह गए कि एक राजा और एक गरीब साधू से कैसी दोस्ती हो सकती है।
भगवान कृष्ण ने सुदामा को अपने गले से लगा लिया और अपने महल में ले गए और उनकी पाठशाला के दिनों की यादें ताजा हो गयी तब कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि भाभी ने उनके लिए क्या भेजा है है? इस बात पर सुदामा संकोच में पड़ गए और अपने साथ लाये चावल की पोटली छुपाने लगे। ऐसा देखकर कृष्ण ने उनसे चावल की पोटली फिर बच्पन की तरह उनसे छीन ली। सुदामा की गरीबी देखकर उनके आखों में आंसूओं की धार निकल पड़ी।
उन्होंने चावल के उस पोटली में से एक मुट्ठी चावल निकाल कर खा गये और फिर दूसरी मुट्ठी चावल निकाल कर खा गये और जब तीसरी मुठ्ठी चावल निकलने के लिये अपना हाथ कृष्ण ने आगे बढ़ाया तो झट से रुक्मणि ने उनका हाथ रोकते हुये कहा हे प्रभु यह आप क्या कर रहे है? सुदामा को दो मुठ्ठी तन्दुल निकाल कर आपने सुदामा को पहले ही दो लोकों का स्वामित्व उन्हें दे डाल तीसरी मुठ्ठी से तो आप उन्हें तीनो लोकों का स्वामित्व दे डालेंगे तो प्रभु आप स्वमं कहाँ निवास करेंगे?
सुदामा कुछ दिन द्वारिकापुरी में रहे लेकिन संकोचवश कृष्ण से कुछ भी नही मांगा सुदामा जब अपने घर लौटने लगे तो सोचने लगे कि पत्नी पूछेगी कि क्या लाए हो तो वह क्या जवाब देंगे? सुदामा इन्ही विचारों में खोये कब घर पहुंचे उन्हें तो होश ही नही रहा। जब वहां उन्हें अपनी झोपड़ी नजर ही नहीं आई। वह अपनी झोपड़ी ढूंढ ही रहे थे कि तभी एक सुंदर महल जैसे घर से उनकी पत्नी को बाहर आते देखा। सुदामा ने अपनी पत्नी सुशीला को बहुत सुंदर कपड़े पहने हुए देखा तो सुशीला ने सुदामा से कहा, देखा आपके मित्र कृष्ण का प्रताप, हमारी गरीबी दूर कर भगवान कृष्ण ने हमारे सारे दुःखों का हरण कर लिए। सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आंखों में खूशी के आंसू छलक आये।
कृष्ण ने सुदामा को अपने से भी अधिक धनवान बना दिया था।
आज वर्तमान समय मे भी लोग कृष्ण एवं सुदामा जैसे मित्र और उनके मित्रता का उदाहरण दूसरों के सामने प्रस्तुत करते हैं।